Livelihood Creation Project: Kumaun Grameen Udyog

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This is part of a series in which we will profile organizations in India who received a Social Innovation grant through the Harvard South Asia Institute/Tata Trusts project on Livelihood Creation.

Kumaun Grameen Udyog’s vision is to create an efficient rural enterprise – based on the principles of equity, quality and collective action – that will provide sustainable livelihood opportunities to artisans and small farmers in rural Kumaun and provide consumers with quality products.
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Thanks for subject im working for livelihood its good

shrikantsonkamble
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इंसान की मूलभूत जरूरत रोटी, कपड़ा और मकान हैं। कुमाऊं अंचल की भौगौलिक स्थिति पीथौरागड़ को छोड़कर गढ़वाल से अलग हैं। गढ़वाल गदेरों से भरा पड़ा हैं जबकि कुमाऊं जमीन से रीसकर निकलते पानी नौलों से जहां कुंड़ जैसा बनता हैं। रामगंगा, कोसी, काली नदियां बरसात के मौसम में विकराल रूप लेती हैं। खेती, जंगल और पशुपालन एक दूसरे के पूरक हैं। बेटी, ब्वारी पहाड़ों की आधारशिला हैं। अस्सी प्रतिशत पुरूष आबादी उत्तराखंड के बाहर डीफैंस, पैरामिलिट्री, पुलिस सेवा में लगी हैं। बचे पुरूष या तो दुकान, होटल, लौज, ढ़ाबा या टाटा सुमो चलाते हैं और सरकारी वीर चंद्रसिंह गढ़वाली पर्यटन योजना का लाभ लेते हैं। पहाड़ों की अधिकतर खेती असिंचित मानसून पर आधारित थी परंतु अब सरकार ने गदेरों और मंगरों से आते पानी को एक टैंक में इकट्ठा कर पाइपलाइन के माध्यम से घरों और खेतों तक पहूंचाया हैं। खेत की गुड़ाई निराई सब ज्यादातर बेटी ब्वारी करती हैं। रिंगाल के सोल्टों में सामान पीठ पर लाया लेजाया जाता हैं। सुबह चार बजे चाय पीने के बाद सब औरतें टोली बनाकर पहाड़ों पर जंगलों से बांज की पत्तिया, लकड़ियां, घास, पीरूल का बोझा अपनी पीठ पर बांधकर लातीं हैं। ज्यादातर पुरूष आबादी या तो बकरीयां, भेड़ें, गायें बक्करवाल चराने जाती हैं। औरतें सुल्फा, हुक्का, दारू का नशा नहीं करती और घाम तेज धुप और बारीश में काम पर लगी रहतीं हैं। पहले अपने मायके में और फिर ससूराल में। एन जी ओ अगर दस गाय, बकरी, भेड़ें, भैंस देती हैं तो वह पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चे देकर एकसौ हो जाती हैं।दुध, दही, मक्कखन, छांछ, पनीर, मठ्ठा, मांस, ऊन सब मील जाता हैं। ओक बांज से टस्सर सिल्क मिलता हैं । ईल्ली भी मौजूद हैं और बांज के पेड़ों की कोई कमी नहीं बशर्ते पेड़ न कांटे जाए तो। पहले उत्तराखंड में आजादी उपरांत ज्यादातर भूखंड करीब तीरयासी प्रतिशत जंगल थे। विकास के नाम पर सशस्त्र सीमा बल, बार्डर रोड़ औरगैनाईजेशन, ITBP, गढ़वाल सकाउंटस, औली परीयोजना, टेहरी डैम, चारधाम परियोजना, भ्रष्टाचार जंगलात के पेड़ों को काटकर बेचने का की भेंट चढ़ गए। देहरादून, श्रषिकेश, हरीद्वार, हल्द्वानी में पलायन होने से कंक्रीट के जंगल वहां बन गए। अब लोगों के दो घर हैं एक पहाड़ में जहां ताला लगा हैं और एक देहरादून हल्द्वानी में जहां सुविधा पसंद लोग प्रदुषण में रहते हैं। हैंडीक्राफ्ट में रिंगाल की टोकरीया, सोल्टे बनते हैं। फस्ट मूलभूत जरूरत जंगलों से पूरी होती हैं बांज के पत्ते गाय भैंस खाती हैं। पहाड़ों पर घास अपने आप उगती हैं परंतु उसे लेने जाना पड़ता हैं। बांज के वृक्षों को प्राकृतिक वर्षा निखारती हैं और एपीकल डोंमीनैंस का नियम काम करता हैं। ग्रामीण जितने अधिक बांज के पत्तों को लेते हैं उससे पंद्रह गुना पत्तते पेड़ों पर वापस आ जाते हैं। पत्ते और लकड़ी लेने से कटाई छंटाई अपने आप हो जाती हैं। स्मोकलैस चुल्हा लकड़ी आधारीत भी बन सकता हैं। बांज के पत्तों की मैडीसन गाय भैंस के दूध में आती हैं और लकड़ी की मैडीसन का धुंआ मच्छरों को भगाता हैं। चीड़ से गोंद मिलता हैं चिल्गोंजा मिलता हैं और नीडल लीव्स मिलती हैं। देवदार की छाल बहुत उपयोगी हैं। पहाड़ में सुगंधित और औषधीय पौधे जगह जगह उगते हैं। कड़ाली छूते ही पूरे बदन में आग लग जाती हैं जो कि औषधि हैं जिससे पहाड़ी बच्चों को सजा दी जाती हैं। आलू को ठंड अति प्रीय हैं और कुफरी हील स्टेशन पर आलू का अनुसंधान केन्द्र हैं । सरसों, गेहूं, गोभी को भी ठंड अति प्रीय हैं। कोदो, मड़वा, कौणी, कोकून, ओंगल, भट्ट, गैंथ, राजमा, मूंग, उड़द, लौकी, खीरा, कद्दू, छैमी, मीठा करेला सब पहाड़ों की आबोहवा को पसंद करता हैं। सेब, पूलम, आड़ू, केला, चूली, अख़रोट, संतरा, कीन्नू, बुरांश, काफल पहाड़ों पर होता हैं। कुमाऊं ग्रामीण उद्योग हो या कोई भी उधमी वह भले ही एन जी ओ हो या कोई भी उधोग वह तभी भला कर सकता हैं जब ROI हो। नो प्रोफिंट नो लौस पर कोई धंधा नहीं चलता। हथकरघा उद्योग में बने कोट, कुर्ते, पयजामें, साड़ी में बुनकर को यदी बीस रूपया मिलता हैं तो उधोगपति को नगरों में वहीं सिटीमौल में बेचकर ढ़ाई हज़ार। तुम हमारी बर्फ की चोंटीयों को यूं मत

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