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SECTION 198A CRPC 1973
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PROSECUTION OF OFFENCE UNDER SECTION 498-A OF IPC 1860
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हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 शून्य विवाह से संबंधित है। धारा 11 उन विवाहों का उल्लेख कर रही है जो विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत शून्य होते हैं, अर्थात वह विवाह प्रारंभ से ही कोई वजूद नहीं रखते हैं तथा उस विवाह के अधीन विवाह के पक्षकार पति पत्नी नहीं होते। शून्य विवाह वह विवाह है जिसे मौजूद ही नहीं माना जाता है। शून्य विवाह का अर्थ है कि वह विवाह जिसका कोई अस्तित्व ही न हो अर्थात अस्तित्वहीन विवाह है। किसी भी वैध विवाह के संपन्न होने के बाद पुरुष और नारी के मध्य विधिक वैवाहिक संबंध स्थापित होते हैं परंतु यदि विवाह शुन्य है तो कोई भी ऐसा संबंध स्थापित नहीं होता है। उन लोगों के बीच केवल यौन संबंध स्थापित होता है तथा दोनों को ही एक दूसरे के प्रति कोई अधिकार तथा दायित्व नहीं होते हैं।
यमुनाबाई बनाम अन्तर राव एआईआर 1981 सुप्रीम कोर्ट 644 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि शून्य विवाह उसे कहा जाता है जिसे विधि की दृष्टि में कोई अस्तित्व ही नहीं माना जा सकता है, ऐसे विवाह को इस के किसी भी पक्षकार द्वारा विधिक रूप से इंफ़ोर्स नहीं किया जा सकता है। अधिनियम की धारा 11 यह घोषणा करती है कि इस अधिनियम की धारा 5 के खंडों (1) (4) और (5) में उल्लेखित शर्तों का उल्लंघन ऐसा विवाह शून्य विवाह कर देता है।
हिंदू विवाह की शर्तों (धारा 5) के संबंध में लेखक द्वारा टीका टिप्पणी के साथ लिखा गया आलेख लाइव लॉ वेबसाइट पर उपलब्ध है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 हिंदू विवाह के लिए शर्तों का उल्लेख कर रही है। धारा 5 के अंतर्गत उन शर्तों का उल्लेख किया गया है जिन शर्तों के मुकम्मल होने पर हिंदू विवाह संपन्न होता है। अधिनियम की धारा 11 शून्य विवाह का उल्लेख कर रही है, धारा 11 के अनुसार धारा 5 की तीन शर्तों का उल्लंघन कर दिया जाता है तो विवाह शून्य हो जाता है।
वह तीन शर्ते निम्नलिखित हैं पूर्वर्ती विधिमान्य विवाह के विघटन के पूर्व दूसरा विवाह कर लेना विवाह के पक्षकारों का विवाह के समय एक दूसरे के सपिंड होना विवाह के पक्षकारों का आपस में प्रतिसिद्ध नातेदारी का होना हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 11 के अनुसार यह वह तीन शर्ते हैं जो किसी भी विवाह को शून्य घोषित कर देती है। यदि इन तीनों या फिर इनमे से किसी एक शर्त का उल्लंघन कर दिया गया है और विवाह संपन्न किया गया है तो ऐसा विवाह प्रारंभ से ही संपन्न नहीं माना जाएगा। इस विवाह को शून्य घोषित करवाने हेतु विवाह का कोई भी पक्षकार न्यायालय के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। पूर्ववर्ती विधिमान्य विवाह के होते हुए दूसरा विवाह संपन्न करना यह किसी भी हिंदू विवाह को शून्य घोषित करने हेतु इस अधिनियम की धारा 11 के अनुसार पहली शर्त है। सन 1955 के पूर्व हिंदू विधि पुरुषों के लिए बहु विवाह को मान्यता प्रदान करती थी लेकिन हिंदू विवाह अधिनियम के प्रवर्तनीय हो जाने पर यदि प्रथम विवाह अस्तित्वशील है तो विधवा या विधुर और तलाकशुदा पक्षकारों के अतिरिक्त कोई भी हिंदू दूसरा विवाह या पुनर्विवाह नहीं कर सकता है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 उसमें उल्लेखित शर्तों के उल्लंघन के परिणाम को स्पष्ट नहीं करती हैं लेकिन धारा 11 इस संदर्भ में स्पष्ट करती हैं। एक व्यक्ति के पति या पत्नी के जीवनकाल के दौरान दूसरा विवाह प्रारंभ से ही शून्य होता है। प्रथम विवाह के विद्यमान रहते हुए पुनर्विवाह करना भारतीय दंड संहिता की धारा 495 और 496 के अधीन दंडनीय अपराध भी होता है। संतोष कुमार बनाम सुरजीत सिंह एआईआर 1990 के प्रकरण में कहा गया है कि यदि पहली पत्नी के रहते हुए दूसरी पत्नी से विवाह किया गया तो वह विवाह शून्य होगा और यह भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय अपराध भी होगा। यदि प्रथम पत्नी पति को दूसरा विवाह करने के लिए सहमति देती है तो भी द्वित्तीय विवाह वैध नहीं होगा क्योंकि प्रथम विवाह की विधिमान्यता में द्वितीय विवाह किया गया है और किसी विवाह के विद्यमान रहते हुए दूसरा विवाह किया जाना दंडनीय अपराध भी है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 के अनुसार शून्य है।
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हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 शून्य विवाह से संबंधित है। धारा 11 उन विवाहों का उल्लेख कर रही है जो विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत शून्य होते हैं, अर्थात वह विवाह प्रारंभ से ही कोई वजूद नहीं रखते हैं तथा उस विवाह के अधीन विवाह के पक्षकार पति पत्नी नहीं होते। शून्य विवाह वह विवाह है जिसे मौजूद ही नहीं माना जाता है। शून्य विवाह का अर्थ है कि वह विवाह जिसका कोई अस्तित्व ही न हो अर्थात अस्तित्वहीन विवाह है। किसी भी वैध विवाह के संपन्न होने के बाद पुरुष और नारी के मध्य विधिक वैवाहिक संबंध स्थापित होते हैं परंतु यदि विवाह शुन्य है तो कोई भी ऐसा संबंध स्थापित नहीं होता है। उन लोगों के बीच केवल यौन संबंध स्थापित होता है तथा दोनों को ही एक दूसरे के प्रति कोई अधिकार तथा दायित्व नहीं होते हैं।
यमुनाबाई बनाम अन्तर राव एआईआर 1981 सुप्रीम कोर्ट 644 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि शून्य विवाह उसे कहा जाता है जिसे विधि की दृष्टि में कोई अस्तित्व ही नहीं माना जा सकता है, ऐसे विवाह को इस के किसी भी पक्षकार द्वारा विधिक रूप से इंफ़ोर्स नहीं किया जा सकता है। अधिनियम की धारा 11 यह घोषणा करती है कि इस अधिनियम की धारा 5 के खंडों (1) (4) और (5) में उल्लेखित शर्तों का उल्लंघन ऐसा विवाह शून्य विवाह कर देता है।
हिंदू विवाह की शर्तों (धारा 5) के संबंध में लेखक द्वारा टीका टिप्पणी के साथ लिखा गया आलेख लाइव लॉ वेबसाइट पर उपलब्ध है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 हिंदू विवाह के लिए शर्तों का उल्लेख कर रही है। धारा 5 के अंतर्गत उन शर्तों का उल्लेख किया गया है जिन शर्तों के मुकम्मल होने पर हिंदू विवाह संपन्न होता है। अधिनियम की धारा 11 शून्य विवाह का उल्लेख कर रही है, धारा 11 के अनुसार धारा 5 की तीन शर्तों का उल्लंघन कर दिया जाता है तो विवाह शून्य हो जाता है।
वह तीन शर्ते निम्नलिखित हैं पूर्वर्ती विधिमान्य विवाह के विघटन के पूर्व दूसरा विवाह कर लेना विवाह के पक्षकारों का विवाह के समय एक दूसरे के सपिंड होना विवाह के पक्षकारों का आपस में प्रतिसिद्ध नातेदारी का होना हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 11 के अनुसार यह वह तीन शर्ते हैं जो किसी भी विवाह को शून्य घोषित कर देती है। यदि इन तीनों या फिर इनमे से किसी एक शर्त का उल्लंघन कर दिया गया है और विवाह संपन्न किया गया है तो ऐसा विवाह प्रारंभ से ही संपन्न नहीं माना जाएगा। इस विवाह को शून्य घोषित करवाने हेतु विवाह का कोई भी पक्षकार न्यायालय के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। पूर्ववर्ती विधिमान्य विवाह के होते हुए दूसरा विवाह संपन्न करना यह किसी भी हिंदू विवाह को शून्य घोषित करने हेतु इस अधिनियम की धारा 11 के अनुसार पहली शर्त है। सन 1955 के पूर्व हिंदू विधि पुरुषों के लिए बहु विवाह को मान्यता प्रदान करती थी लेकिन हिंदू विवाह अधिनियम के प्रवर्तनीय हो जाने पर यदि प्रथम विवाह अस्तित्वशील है तो विधवा या विधुर और तलाकशुदा पक्षकारों के अतिरिक्त कोई भी हिंदू दूसरा विवाह या पुनर्विवाह नहीं कर सकता है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 उसमें उल्लेखित शर्तों के उल्लंघन के परिणाम को स्पष्ट नहीं करती हैं लेकिन धारा 11 इस संदर्भ में स्पष्ट करती हैं। एक व्यक्ति के पति या पत्नी के जीवनकाल के दौरान दूसरा विवाह प्रारंभ से ही शून्य होता है। प्रथम विवाह के विद्यमान रहते हुए पुनर्विवाह करना भारतीय दंड संहिता की धारा 495 और 496 के अधीन दंडनीय अपराध भी होता है। संतोष कुमार बनाम सुरजीत सिंह एआईआर 1990 के प्रकरण में कहा गया है कि यदि पहली पत्नी के रहते हुए दूसरी पत्नी से विवाह किया गया तो वह विवाह शून्य होगा और यह भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय अपराध भी होगा। यदि प्रथम पत्नी पति को दूसरा विवाह करने के लिए सहमति देती है तो भी द्वित्तीय विवाह वैध नहीं होगा क्योंकि प्रथम विवाह की विधिमान्यता में द्वितीय विवाह किया गया है और किसी विवाह के विद्यमान रहते हुए दूसरा विवाह किया जाना दंडनीय अपराध भी है और हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 11 के अनुसार शून्य है।