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GCON pratapgarh rajsthan holi celebration#GCONpratapgarh@thelittlegirlpihu7674 @angelicabeniwal
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#GCON_pratapgarh
#BSCNursing #Students
#GOVT_COLLAGE_OF_NURSNIG_PRATAPGARH
#HOLI_SPECIAL
#RANG_TERAS
देशभर में होली के अगले दिन रंगों का पर्व धुलंडी मनाया जाता है, लेकिन आदिवासी बाहुल्य प्रतापगढ़ जिले में आदिवासी समुदाय आज भी 100 साल पुरानी परंपरा का निर्वाह करते हुए होली के अगले दिन धुलंडी पर रंग नहीं खेलता। पूर्व राजघराने में शोक के चलते होली के 12 दिन बाद रंग तेरस पर रंगों का पर्व मनाया जाता है।
देश में कई जगहों पर होली मनाने की अलग परंपरा है। प्रतापगढ़ में होली दहन के 12 दिन बाद रंग तेरस पर अलग ही नजारा देखने को मिलता है। जिलेभर में होली पर लोक परंपरा के अनुसार गेर नृत्य होता है। इसके साथ ही फूलों और गुलाल से होली खेली जाती है। इसमें रंग, गेर नृत्य और आदिवासी संस्कृति का अनूठा समावेश देखने को मिलता है। जिले के धरियावद उपखंड में धुलंडी के दिन ढूंढ़ोत्सव होता है। इसी तरह बारावरदा क्षेत्र में होली के अगले दिन गेर खेलकर होली के सात फेरे लगाए जाते हैं। निकटवर्ती टांडा और मानपुरा गांव में लट्ठ मार होली खेली जाती है।
पारंपरिक वेशभूषा के साथ होता है गेर नृत्य
जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर बारावरदा, मेरियाखेड़ी, मधुरा तालाब, नकोर में आदिवासी पिछले सौ साल से धुलंडी पर पारंपरिक वाद्य यंत्रों पर गेर नृत्य करते आ रहे हैं। ऐसी मान्यता है कि पूरे साल के बीच परिणय सूत्र में बंधे वैवाहिक जोड़ों को धुलंडी के दिन सज धजकर होली के सात फेरे लगाकर गेर नृत्य करना होता है। ऐसा करने से दांपत्य जीवन सुखी और खुशहाल होता है। वहीं साल भर में जिस किसी के घर में मृत्यु हो जाती है वह भी धुलंडी को सात फेरे लेकर शोक खत्म करते हैं। शोक खत्म करने से पहले आदिवासी महिलाएं पल्ला लेकर मृत आत्मा के मोक्ष की कामना करती हैं। होली के बाद शोक वाले घर में शोक नहीं मनाया जाता। घरों में मृत व्यक्ति की मोक्ष की कामना के साथ उसे दुबारा याद नहीं करने का प्रण भी होलिका के सामने लिया जाता है। यहां के लोगो का मानना है कि होली के सात फेरे लेने से साल भर तक व्यक्ति बीमार नहीं होता है, साथ ही सालभर तक खेतों में फसलें लहलहाती रहती है। इसके साथ ही होली के फेरे लगाकर आदिवासी समाज देश में खुशहाली की कामना भी करता है।
लोक देवता को खुश करने की लिए मनाया जाता है उत्सव
आदिवासी समाज के रामलाल मीणा ने बताया कि होली दहन के बाद दूसरे दिन राज परिवार में शोक के चलते होली तो नहीं खेली जाती, लेकिन होली दहन के बाद समाज के लोग धुलंडी के दिन होली की भस्म के सात फेरे जरूर लगाते हैं। यह एक सामाजिक परंपरा है। इस दौरान होली की भस्म में से आनी वाले भविष्य और मौसम की भविष्यवाणी भी समाज के बुजुर्ग करते हैं। वहीं आदिवासी महिलाएं होली को जल से ठंडा कर लोक गीत गाती है, समाज में खुशहाली की प्रार्थना करती हैं। उसके बाद समाज के युवाओं के साथ गेर नृत्य शुरू किया जाता है। धुलंडी के दिन होली का रंग भले ही ना दिखे, लेकिन पूरे दिन लोक संस्कृति का रंग जरूर दिखाई देता है। गेर नाचने वाले युवाओं की टोलिया होली दहन के स्थलों पर जाकर गैर नृत्य करते है और उत्सव मनाते है। सुबह से मनाए जाने वाला यह उत्सव रात तक चलता है।
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देशभर में होली के अगले दिन रंगों का पर्व धुलंडी मनाया जाता है, लेकिन आदिवासी बाहुल्य प्रतापगढ़ जिले में आदिवासी समुदाय आज भी 100 साल पुरानी परंपरा का निर्वाह करते हुए होली के अगले दिन धुलंडी पर रंग नहीं खेलता। पूर्व राजघराने में शोक के चलते होली के 12 दिन बाद रंग तेरस पर रंगों का पर्व मनाया जाता है।
देश में कई जगहों पर होली मनाने की अलग परंपरा है। प्रतापगढ़ में होली दहन के 12 दिन बाद रंग तेरस पर अलग ही नजारा देखने को मिलता है। जिलेभर में होली पर लोक परंपरा के अनुसार गेर नृत्य होता है। इसके साथ ही फूलों और गुलाल से होली खेली जाती है। इसमें रंग, गेर नृत्य और आदिवासी संस्कृति का अनूठा समावेश देखने को मिलता है। जिले के धरियावद उपखंड में धुलंडी के दिन ढूंढ़ोत्सव होता है। इसी तरह बारावरदा क्षेत्र में होली के अगले दिन गेर खेलकर होली के सात फेरे लगाए जाते हैं। निकटवर्ती टांडा और मानपुरा गांव में लट्ठ मार होली खेली जाती है।
पारंपरिक वेशभूषा के साथ होता है गेर नृत्य
जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर बारावरदा, मेरियाखेड़ी, मधुरा तालाब, नकोर में आदिवासी पिछले सौ साल से धुलंडी पर पारंपरिक वाद्य यंत्रों पर गेर नृत्य करते आ रहे हैं। ऐसी मान्यता है कि पूरे साल के बीच परिणय सूत्र में बंधे वैवाहिक जोड़ों को धुलंडी के दिन सज धजकर होली के सात फेरे लगाकर गेर नृत्य करना होता है। ऐसा करने से दांपत्य जीवन सुखी और खुशहाल होता है। वहीं साल भर में जिस किसी के घर में मृत्यु हो जाती है वह भी धुलंडी को सात फेरे लेकर शोक खत्म करते हैं। शोक खत्म करने से पहले आदिवासी महिलाएं पल्ला लेकर मृत आत्मा के मोक्ष की कामना करती हैं। होली के बाद शोक वाले घर में शोक नहीं मनाया जाता। घरों में मृत व्यक्ति की मोक्ष की कामना के साथ उसे दुबारा याद नहीं करने का प्रण भी होलिका के सामने लिया जाता है। यहां के लोगो का मानना है कि होली के सात फेरे लेने से साल भर तक व्यक्ति बीमार नहीं होता है, साथ ही सालभर तक खेतों में फसलें लहलहाती रहती है। इसके साथ ही होली के फेरे लगाकर आदिवासी समाज देश में खुशहाली की कामना भी करता है।
लोक देवता को खुश करने की लिए मनाया जाता है उत्सव
आदिवासी समाज के रामलाल मीणा ने बताया कि होली दहन के बाद दूसरे दिन राज परिवार में शोक के चलते होली तो नहीं खेली जाती, लेकिन होली दहन के बाद समाज के लोग धुलंडी के दिन होली की भस्म के सात फेरे जरूर लगाते हैं। यह एक सामाजिक परंपरा है। इस दौरान होली की भस्म में से आनी वाले भविष्य और मौसम की भविष्यवाणी भी समाज के बुजुर्ग करते हैं। वहीं आदिवासी महिलाएं होली को जल से ठंडा कर लोक गीत गाती है, समाज में खुशहाली की प्रार्थना करती हैं। उसके बाद समाज के युवाओं के साथ गेर नृत्य शुरू किया जाता है। धुलंडी के दिन होली का रंग भले ही ना दिखे, लेकिन पूरे दिन लोक संस्कृति का रंग जरूर दिखाई देता है। गेर नाचने वाले युवाओं की टोलिया होली दहन के स्थलों पर जाकर गैर नृत्य करते है और उत्सव मनाते है। सुबह से मनाए जाने वाला यह उत्सव रात तक चलता है।